महा्राष्ट्र: 22 साल पहले बेटा-बेटी की मौत को देख राजनीति छोड़ चुके थे एकनाथ शिंदे, अब उद्धव ठाकरे से की बगावत

शिवसेना के बागी लीडर एकनाथ शिंदे के बेटा व बेटी की 22 साल पहले उनके आखों के सामने डूबने से मौत हो गयी थी। उस वक्त राजनीति छोड़ने का फैसला कर चुके शिंदे अभी शिवसेना के लगभग तीन दर्जन विधायकों के अपने साथ कर पार्टी सुप्रीमो व सीएम उद्धव ठाकरे को सिंहासन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।  

महा्राष्ट्र: 22 साल पहले बेटा-बेटी की मौत को देख राजनीति छोड़ चुके थे एकनाथ शिंदे, अब उद्धव ठाकरे से की बगावत

मुंबई। शिवसेना के बागी लीडर एकनाथ शिंदे के बेटा व बेटी की 22 साल पहले उनके आखों के सामने डूबने से मौत हो गयी थी। उस वक्त राजनीति छोड़ने का फैसला कर चुके शिंदे अभी शिवसेना के लगभग तीन दर्जन विधायकों के अपने साथ कर पार्टी सुप्रीमो व सीएम उद्धव ठाकरे को सिंहासन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।  

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एकनाथ शिंदे अपने 11 साल के बेटे दीपेश और सात साल की बेटी शुभदा के साथ सतारा गये थे। बोटिंग करते हुए एक्सीडेंट हुआ। शिंदे के दोनों बच्चे उनकी आंखों के सामने डूब गये। उस वक्त शिंदे का तीसरा बच्चा श्रीकांत सिर्फ 14 साल का था, जो अभी शिवसेना एमपी है। मीडिया के साथ एक इंटरव्यू में इस दर्दनाक घटना को याद करते हुए शिंदे ने कहा था, 'ये मेरी जिंदगी का सबसे काला दिन था। मैं पूरी तरह टूट चुका था। मैंने सब कुछ छोड़ने का फैसला किया। राजनीति भी।'

महाराष्ट्र के सतारा जिले के पहाड़ी जवाली तालुका के रहने वाले एकनाथ शिंदे का जन्म नौ फरवरी 1964 को हुआ था। ठाणे शहर में आने के बाद 11वीं  क्लास तक मंगला हाई स्कूल और जूनियर कालेज, ठाणे से पढ़ाई की लेकिन उनकी कर्मभूमि ठाणे रही। शिंदे शुरुआत में ठाणे में ऑटो चलाते थे। शिवसेना के कद्दावर नेता आनंद दीघे से प्रभावित होकर उन्होंने 1980 के दशक में शिवसेना ज्वॉइन की। दीघे की शिंदे के राजनीतिक गुरू थे। शिंदे पहले शिवसेना के शाखा प्रमुख और फिर ठाणे म्युनिसिपल के कार्पोरेटर चुने गये। बेटा-बेटी की मौत के बाद जब शिंदे ने राजनीति छोड़ने का फैसला किया, तो दीघे ही उन्हें वापस लाये थे। आनंद दीघे का महाराष्ट्र की राजनीति में इतना बड़ा कद था कि बाला साहब ठाकरे को भी लगने लगा था कि कहीं वे पार्टी से बड़े नेता न बन जाएं। ठाणे में तो दीघे के सामने किसी राजनीतिक हस्ती की कोई बिसात ही नहीं थी। 
दीघे की अचानक मौत के बाद शिंदे को मिली राजनीतिक विरासत

आनंद दीघे की अचानक 26 अगस्त 2001 को एक हादसे में मौत हो गई। उनकी मौत को आज भी कई लोग मर्डर मानते हैं। हाल ही में दीघे की मौत पर मराठी में धर्मवीर नाम से एक फिल्म भी आई है। दीघे धर्मवीर के नाम से भी मशहूर थे। दीघे की मौत के बाद शिवसेना को ठाणे में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए एक फेस था। ठाकरे परिवार ठाणे को ढुलमुल रवैये के साथ नहीं छोड़ सकता था। ठाणे महाराष्ट्र का एक बड़ा जिला है। शिंदे शुरुआत से ही दीघे के साथ जुड़े हुए थे लिहाजा उनकी राजनीतिक विरासत शिंदे को ही मिली। शिंदे ने विरासत के बीज को ठीक से रोपा और सींचा भी।एकनाथ शिंदे का कहना है कि उन्हें राजनीति में लाने और अहम जिम्मेदारियां देकर नेतागीरी सिखाने वाले आनंद दीघे ही थे। 
लगातार चार बार जीतकर विधानसभा चुनाव जीते  शिंदे
एक नाथ शिंदे भी अपने गुरू आनंद दीघे तरह जनता के नेता रहे। शिंदे 2004 में पहली बार एमएलए बने। उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने ठाणे में ऐसा वर्चस्व बना लिया कि वहां की राजनीति का केंद्र बन गये। 2009, 2014 और 2019 विधानसभा चुनाव में भी जीत मिली। वर्ष 2014 में नेता प्रतिपक्ष भी बने। मिनिस्टर पोस्ट पर रहते हुए शिंदे के पास हमेशा अहम विभाग रहे। वर्ष2014 मंक फडणवीस सरकार में PWD मंत्री रहे। इसके बाद 2019 में शिंदे को सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और नगर विकास मंत्रालय का जिम्मा मिला। महाराष्ट्र में आमतौर पर CM यह विभाग अपने पास रखते हैं।
बगावत के पीछे शिंदे के बेटे और फडणवीस का हाथ?
बताया जाता है कि अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए एकनाथ शिंदे ने अपने बेटे को भी मैदान में उतार दिया। पेशे से डॉक्टर श्रीकांत शिंदे कल्याण लोकसभा सीट से एमपी हैं। कहा जा रहा है कि शिंदे के बागी होने के पीछे उनके बेटे श्रीकांत का दबाव है।श्रीकांत का कहना है कि बीजेपीके साथ उनकी राजनीति का सुनहरा भविष्य है। बीजेपी व खासकर एक्स सीएम देवेंद्र फडणवीस ने एकनाथ शिंदे को अंदरखाने हमेशा ताकतवर ही किया है। फडणवीस जानते थे कि उद्वव ठाकरे के खिलाफ बगावत करने के लिए शिंदे ही सबसे मजबूत कड़ी हैं।बीजेपी ने कई मौकों पर कहा कि शिंदे को साइडलाइन किया जा रहा है। भाजपा ने ही शिंदे को भी बार बार अहसास करवाया कि शिवसेना में उनकी कोई अहमियत नहीं रही। जब चारों ओर माहौल बन गया कि शिंदे ठाकरे से नाराज हैं और कभी भी छोड़कर जा सकते हैं तो ठाकरे ने भी शिंदे से दूरी बना ली।
शिवसेना में पनी पैठ बना रहे थे शिंदे
महाराष्ट्र के जिले ठाणे से सियासी सफर शुरु करने वाले शिंदे को उद्धव ठाकरे का मैसेंजर यानी दूत कहा जाता था। जब भी किसी जिले में कोई भी सियासी संकट हो तो शिंदे ही उसे सुलझाने जाया करते थे। पिछले दो सालों में सीएम उद्धव ठाकरे ने न कोई बड़ी बैठक की और न ही विधायकों से ज्यादा मिले। ठाकरे की जगह शिंदे एमएलए से लगातार मिलते रहे और उनकी समस्याएं सुलझाते रहे। यहीं अंदरखाने उन्होंने शिवसेना के एमएलए का भरोसा जीत लिया। सभी एमएलए बगावत के लिए तैयार कर लिया।
बागी क्यों हुए शिंदे ?
2019 में विधानसभा चुनाव के दौरान शिंदे को उम्मीद थी कि ठाकरे फैमिली स्वर्गीय बाला साहब ठाकरे की परंपरा का निर्वाह करते हुए स्वयं सीएम पद का दावेदार नहीं बनेगा। लेकिन पहले आदित्य ठाकरे के खुद वि धानसभा चुनाव लड़ जाने और फिर उद्धव ठाकरे द्वारा कांग्रेस-एनसीपी जैसे धुर विरोधी विचारों वाली पार्टियों से हाथ मिला कर खुद सीएम बन जाने के बाद शिंदे को शिवसेना में अपना भवि ष्य अंधकारमय नजर आने लगा। उनकी बगावत का एक और बड़ा कारण शिवसेना का हिंदुत्व के एजेंडे से भटकना भी माना जा रहा है। एमवीए सरकार में शिवसेना की सहयोगी पार्टी एनसपी का ठाणे में हिंदू विरोधी रिकार्ड रहा है। ठाणे में एनसीपी लीडर जीतेंद्र आह्वाड के कंधे से कंधा मिला कर चलना एकनाथ शिंदे के लिए संभव नहीं हो पाना भी उनकी बगावत का एक कारण माना जा रहा है।